मोनालिसा खामोश है...
रात की रानी की खुशबू घुप्प अंधेरे में भी उसकी मौजूदगी का ऐहसास करा देती है किन्तु अक्सर मौजूद होने पर भी किसी की मौजूदगी का ऐहसास नहीं हो पाता।
ऐसा ही लगा था मुझे जब मैं लूव्र में मोनालीसा के सामने खड़ा था।
देर तक कोशिश करता रहा उस तथाकथित मुस्कराहट के पार झांकने की। कोई संवाद नहीं, कोई हलचल नहीं बस एक स्थिरता किसी उपन्यास के काल्पनिक पात्र जैसी जिसे लेखक नें शब्दों का ताना बाना बुनकर पाठकों के मस्तिष्क में रोप दिया हो।
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पूर्वाग्रहों से अपने को मुक्त करने का मैने प्रयास किया। बस मैं था और मेरे सामने थी कलाकार की कल्पना का आकार लेती एक कृति।
मैं देर तक वहां खोजता रहा वास्तविक मोनालीसा और उसके सृजन करता लियोनार्डो द विंची को।
बहुत सारे प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभर रहे थे पर मोनालीसा खामोश थी ।लियोनार्डो को भी खामोश कर दिया था।
उन सभी दावेदारों ने जिन्होंने कलाकार की रचना को अपने शब्दों में परिभाषित कर एक अलग अर्थ दे डाला था, मोनालीसा तब भी खामोश रही...
लेख साभार: जय कृष्ण अग्रवाल
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