नई किताब: बनीठनी प्रेमकथा से चित्रकला तक

 


बनीठनी : प्रेमकथा से चित्रकला तक

ढाई सौ अशर्फी एक,ढाई सौ अशर्फी दो ,ढाई सौ अशर्फी तीन और इसी के साथ बोली खत्म हो गई । 

नीलामकर्ता बावला हो गया था। उसने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि जिस मंडी में कभी सौ से ज़्यादा अशर्फियों की बोली नहीं गई वहां ढाई सौ अशर्फियां! और गुलाबी शरारा पहिने एक कमसिन मासूम लड़की का हाथ पकड़कर उसने उसे रथ के सारथी को सौंप दिया। राजा के अंगरक्षक ने नीलामकर्ता के हाथ में ढाई सौ अशर्फियां रख दीं और रथ दिल्ली से किशनगढ़ के रास्ते पर दौड़ पड़ा ।

यह घटना आज से तकरीबन तीन सौ बरस पहिले तब घटी थी जब मण्डी में गुलाम कमसिन लड़कियों की खरीद फरोख्त होती थी। 

ये वे अभागी लड़कियां होती थीं जो दासियों की नाजायज़ संतानें होती थीं। इनके जन्मते ही इनका भाग्य तय हो जाता था। इसलिए इन्हेंं बिदा करते इनकी माताएं प्राय: भावुक नहीं होती थीं।लेकिन मां तो मां होती है।

इस कमसिन लड़की को बिदा करते उसकी मां ने भरी आंखों से उसकी ऑंखों की मुलायम कोरों में काजल आंज कर इसी दिन के लिये सहेज कर रखा गुलाबी शरारा पहिना दिया था।

इस लड़की को बन्नो कहते थे जिसे किशनगढ़ के महाराजा राजसिंह ने अपनी विदुषी पत्नी बाँकावती की सेवा में गायण के रूप में उनकी सेवा करने के लिये खरीदा था। 

महारानी बाँकावती कृष्ण भक्त थीं और उन्होंने भागवत का राजस्थानी में अनुवाद किया था तथा गायण वे होती थीं जिन्हें महारानियों की सेवा में रखा जाता था।उन्हें संगीत,नाट्य और साहित्य में पारंगत बनाया जाता था।

बन्नो ने न केवल बाँकावती सरकार का विश्वास अर्जित किया बल्कि वह निष्णात कवयित्री बन गई और रसिक बिहारी नाम से पद रचने लगी,उसने चित्रकारी सहित ललित कला के विभिन्न अनुशासनों को साध लिया।

वह विदुषी तो थी ही अप्रतिम सुन्दरी भी थी। यही कारण था कि किशनगढ़ के महाराजकुमार, महाराजा राजसिंह के पुत्र जो उनकी दूसरी रानी कामा की संतान थे और स्वयं भी कृष्ण भक्त अदभुत कवि थे बन्नो पर आसक्त हो गए ।उन्होंने अपनी पत्नी को भी विश्वास में लिया और फिर यह प्रेम अलौकिक हो गया।

सावन्तसिंह कभी गद्दी पर नहीं बैठे। वे नागरीदास हो गए। उन्होंने अड़सठ काव्यग्रंथ रचे और बन्नो बनी ठनी या बणी ठणी बन गईं ।

बनी ठनी अर्थात सजी संवरी । उसे बणी ठणी कहते इसीलिये हैं क्योंकि उसे ब्रम्हा ने ही सजा संवार कर भेजा था। उसके अंग प्रत्यंग ही उसके परिधान थे और उसके हाव भाव ही उसके अलंकरण। 

वह अप्सरा नहीं थी लेकिन विधाता ने शायद उसे इसीलिये गढ़ दिया था ताकि कोई मानवी भी इन्द्र के अभिमान को तोड़ सके। उसके इस अप्रतिम रूप को किशनगढ़ दरबार के महान चितेरे निहालचंद ने रंगों और रेखाओं में अपने कौशल से बांध कर अमर कर दिया। 

बणी ठणी के अंकन को जब मेयो कॉलेज के अंग्रेज़ी के प्रोफेसर और कलाविद एरिक डिकिंसन ने देखा तो वे कह उठे कि मुझे लगा जैसे अबीसीनियन संगीत साकार हो गया हो।

उसके चित्र की तुलना पेरिस के लूब्र संग्रहालय में रखी विश्वविख्यात मोनलिसा से की जाती है।लेकिन मोनलिसा का सौन्दर्य बनी ठनी के आगे कुछ भी नहीं।मोनलिसा तो इसी धरती की स्त्री लगती है लेकिन बनी ठनी दैवीय होकर भी इसी धरती की प्रतीत होती है।

उसका रूप, रूप के भी पार का रूप है। मोनलिसा की मुस्कान बणी ठणी की सपनीली ऑंखों के सामने चन्दनी चांदनी से होड़ लेने को खड़ी कृत्रिम रौशनी की तरह है या मन्दाकिनी के सजीव प्रवाह के समानांतर मरुस्थल की उस मरीचिका की तरह जो अपने प्रवाहित होने का भ्रम भर उत्पन्न करती है।

बणी ठणी यथार्थ की फंतासी है।

इस बनी ठनी और नागरीदास ने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण सेवा में व्यतीत कर दिया। दोनों वृन्दावन आ गए ।वहां उन्हें उन घनानंद या आनंदघन का भी सान्निध्य मिला जिन्हें उनकी सुजान के प्रेम कवित्तों ने रचा था लेकिन उनकी यह कविता कृष्ण प्रेम की कविता हो गई ।कृष्ण ,आनंदघन के सुजान बन गए ।

यमुना के प्रवाह के समान्तर कृष्ण भक्ति की एक और अबाध धारा प्रवहमान होने लगी। अपने अन्त समय तक बनी ठनी और नागरीदास कृष्ण भक्ति में आकण्ठ डूबे रहे और कृष्ण भक्ति की यमुना के प्रवाह ने सदैव के लिए उन्हें अपने अन्तर में समेट लिया। उन दोनों की समाधियां आज भी वृन्दावन में विद्यमान हैं।

बन्नो जैसा सौभाग्य किसी ने नहीं पाया। जो लड़की ढाई सौ अशर्फियो में कभी बिकी थी,जिसके माता पिता कौन हैं यह जग आज तक नहीं जान सका, उसने यह सौभाग्य पाया कि बाँके बिहारी तब तक न सो पाएं जब तक कि वे रसिकबिहारी का पद न सुन लें।

आज भी वृन्दावन में बाँके बिहारी जब सोने को तत्पर होते हैं तो गोस्वामीजी उन्हें रसिकबिहारी का पद सुनाते हैं ,पद सुनते ही उनकी ऑंखों में नींद तैरने लगती है और वे बोझिल होकर मुंद जाती हैं।

इस मोल में बिकी अनमोल बनी ठनी की गल्पकथा को मैंने विभिन्न स्रोतों के आधार पर लिखा है जिनका मैं हृदय से आभारी हूं। इस कथा में निहालचंद की कहानी भी है और आनंदघन या घनानंद की भी और इसकी सबसे बड़ी विशेषता है रसिकबिहारी के वे सभी 65 पद हैं, जो उन्होंने रचे। 

अभी तक "नागर समुच्चय" में संगृहीत केवल 61पदों की जानकारी हिन्दी जगत को थी लेकिन ब्रज संस्कृति शोध संस्थान के सक्रिय सचिव श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी ने अथक परिश्रम कर इन पदों का संकलन कर इनके शद्ध पाठ एवं शोधपूर्ण भूमिका के साथ इन्हें हमारे सामने प्रस्तुत किया है। संस्थान के श्री गोपाल शर्मा ने इसका संपादन किया है। यह सामग्री पहिली बार इस रूप में हिन्दी जगत के सामने आ रही है।

"बनी ठनी: प्रेमकथा से चित्रकला तक "शीर्षक से यह कृति ब्रज संस्कृति शोध संस्थान, गोदा विहार ,वृन्दावन द्वारा हाल ही में प्रकाशित कर दी गई है।अविश्वसनीय तौर पर संस्थान ने इस कृति का मूल्य मात्र 190 रुपए रखा है जो इसमें प्रकाशित रंगीन चित्रों और इन दुर्लभ पदों को देखते हुए नगण्य ही है। इसे क्रय करने के लिये  वाट्सएप नंबर 9219858901 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

(श्रीनर्मदा प्रसाद उपाध्यायजी की फेसबुक वॉल से साभार )



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